समावेशी शिक्षा के मायने और तरीके
आज़ादी के बाद से भारत में हुए शैक्षिक व्यवस्था का विकास इस बात की पुष्टि करता है कि भारतीय शिक्षा ने विभिन्न क्षेत्रीय विविधताओं और भिन्न सीमाओं के बावजूद भी समावेशी शिक्षा के लिए उपकरण के रुप में कार्य किया है| समावेशी शिक्षा से हमारा तात्पर्य वैसी शिक्षा प्रणाली से है जिसमें सभी शिक्षार्थियों को बिना किसी भेद भाव के सीखने सिखाने के सामान अवसर मिले, परन्तु आज भी यह समावेशी शिक्षा उस मुकाम पर नहीं पहुँची है, जहाँ इसे पहुँचना चाहिए|
वस्तुतः समावेशी शिक्षा की परिकल्पना इस संकल्पना पर आधारित है कि सभी बच्चों के विद्यालयी शिक्षा में समावेशन व उसकी प्रक्रियाओं की व्यापक समझ की इस कदर आवश्यकता है कि उन्हें क्षेत्रीय, सांस्कृतिक, सामजिक परिवेश और विस्तृत सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं दोनों में ही संदर्भित करके समझा जाए| क्योंकि भारतीय संविधान में समता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय एवं व्यक्ति की गरिमा को प्राप्य मूल्यों के रूप में निरूपित किया गया है, जिसका ईशारा समावेशी शिक्षा की तरफ हीं है।
हमारा संविधान जाति, वर्ग, धर्म, आय एवं लैंगिक आधार पर किसी भी प्रकार के विभेद का निषेध करता है, और इस प्रकार एक समावेशी समाज की स्थापना का आदर्श प्रस्तुत करता हैं, जिसके परिप्रेक्ष्य में बच्चे को सामाजिक, जातिगत, आर्थिक, वर्गीय, लैंगिक, शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से भिन्न देखे जाने के बजाय एक स्वत्रंत अधिगमकर्त्ता के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है, जिससे लोकत्रांतिक स्कूल में बच्चे के समुचित समावेशन हेतु समावेशी शिक्षा के वातावरण का सृजन किया जा सके। इस दृष्टि से जब हम समावेशी शिक्षा को देखते है तो यह पाते हैं कि समावेशी शिक्षा का महत्व एवं आवश्यकता निम्न है–
समावेशी शिक्षा का महत्व एवं आवश्यकता
• समावेशी शिक्षा प्रत्येक बच्चे के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ, उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है|
• समावेशी शिक्षा अन्य छात्रों को अपनी उम्र के साथ कक्षा के जीवन में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर काम करने हेतु अभिप्रेरित करती है|
• समावेशी शिक्षा बच्चों को उनके शिक्षा के क्षेत्र में और उनके स्थानीय स्कूलों की गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी शामिल करने की वकालत करती है|
• समावेशी शिक्षा सम्मान और अपनेपन की स्कूल संस्कृति के साथ-साथ व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के लिए भी अवसर प्रदान करती है|
• समावेशी शिक्षा अन्य बच्चों, अपने स्वयं के व्यक्तिगत आवश्यकताओं और क्षमताओं के साथ प्रत्येक का एक व्यापक विविधता के साथ दोस्ती का विकास करने की क्षमता विकसित करती है|
इसप्रकार कुल मिलाकर यह समावेशी शिक्षा समाज के सभी बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने की बात का समर्थन करती है| यह सही मायने में सर्व शिक्षा जैसे शब्दों का हीं रूपान्तरित रुप है जिसके कई उद्देश्यों में से एक उद्देश्य है ‘विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा’| लेकिन दुर्भाग्यवश हम सब इसके विस्तृत अर्थ को पूर्ण तरीके से समझने की कोशिश न करते हुए, इस समावेशी शिक्षा का अर्थ प्रमुखता से केवल ‘विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा’ से हीं लगाते हैं, जो कि सर्वथा हीं अनुचित जान पड़ता है, क्योंकि समावेशी शिक्षा का एक उद्देश्य तो ‘विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा’ से हो सकता है, लेकिन इसका संपूर्ण उद्देश्य ‘विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा’ कदापि भी नहीं हो सकता है|
विद्यालयी शिक्षा और उसके परिसर में समावेशी शिक्षा के कुछ तरीके निम्न हो सकते हैं –
• स्कूल के वातावरण में सुधार:- स्कूल का वातावरण किसी भी प्रकार की शिक्षा में बड़ा हीं योगदान रखता है| यह कई चीजों की शिक्षा बच्चों को बिना सीखाए भी दे देता है| अतः समावेशी शिक्षा हेतु सर्वप्रथम उचित तथा मनमोहक स्कूल भवन का प्रबंध जरूरी है| इसके अलावे स्कूलों में आवश्यक साज-सामान तथा शैक्षिक सहायताओं का भी समुचित प्रबंध जरूरी है| बिना इसके विद्यालय में समावेशी माहौल बनाना थोड़ा कठिन होगा|
• दाखिले की नीति में परिवर्तन:- रामलाल जी पेशे से किसान हैं, वे अपने बेटे महेंद्र (उम्र आठ साल) के साथ दिल्ली के एक स्कूल में नामांकन के लिए जाते है| सामान्य विद्यालय उसे नामांकन से इंकार कर देते है और उसे अंधे बालकों के लिए संचालित विशेष स्कूल में जाने की सलाह देते हैं, क्योंकि वह चीजों को स्पष्ट रुप से नहीं देख पाता है| अगले दिन रामलाल जब अपने बेटे महेंद्र के साथ अंधे बालकों के लिए संचालित विशेष स्कूल में नामांकन हेतु जाते हैं, तो वह विद्यालय भी उसके नामांकन से इंकार कर देता है, क्योंकि वह आंशिक रुप से देख सकता था| यह समस्या केवल रामलाल की हीं नहीं वरन उन करोड़ों माता-पिता की है, जिनके बच्चे महेंद्र की तरह है|
समाज से इस तरह की कुरीतीयो को हटाने और समावेशी शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों को आम जन तक पहुँचाने हेतु विद्यालय के दाखिले की नीति में भी परिवर्तन किया जाना चाहिए| हालाँकि कुछ कानून इसकी वकालत करते हुए दिखाई दे भी रहे हैं, लेकिन धरातल पर इसकी वास्तविकता में संदेह प्रतीत होता है|
• रुचिपूर्ण एवं विभिन्न पाठ्यक्रम का निर्धारण:- किसी विद्वान ने सच हीं कहा है कि “बच्चों को शिक्षित करने का सबसे असरदार ढंग है कि उन्हें प्यारी चीजों के बीच खेलने दिया जाए|” अतः सभी विद्यालयी बच्चों में समावेशी शिक्षा की ज्योति जलाने हेतु इस बात की भी नितांत आवश्यकता है कि उन्हें रुचियों के अनुसार संगठित किया जाए और पाठ्यक्रम का निर्माण उनकी अभिवृतियों, मनोवृतियों, आकांक्षाओं तथा क्षमताओं के अनुकूल किया जाए| इसके संबंध में विभिन्न शिक्षा आयोगों के सुझावों को भी प्रमुखता से लेने की आवश्यकता है जो इस बात पर जोड़ देता है कि पाठ्यक्रम में विभिन्नता हो तथा वह पर्याप्त लचीला हो ताकि उसे छात्रों की आवश्यकताओं, क्षमताओं तथा रुचियों के अनुकूल किया जा सके, छात्रों में विभिन्न योग्यताओं, क्षमताओं का विकास हो सके, पाठ्यक्रम का संबंध सामाजिक जीवन से हो, छात्रों को कार्य करने तथा समय का सदुपयोग करने की शिक्षा प्राप्त हो सके|
• प्रावैगिक विधियों का प्रयोग:- शिक्षा को लेकर स्वतंत्र भारत के लगभग सभी शिक्षा आयोगों ने शिक्षण में प्रावैगिक विधियों के अधिकाधिक प्रयोग की सिफारिश की है, परन्तु इसका वास्तविक प्रयोग न के बराबर हुआ है| इसके जबर्दस्त परिणाम इस रुप में सामने आ रहे हैं कि दिन-ब-दिन विद्यालयों का स्तर गिरता हीं जा रहा है| अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि समावेशी शिक्षा हेतु शिक्षकों को इसकी नवीन विधियों का ज्ञान करवाया जाए तथा उनके प्रयोग पर बल दिया जाए|
समावेशी शिक्षा के लिए विद्यालय के शिक्षकों को समय-समय पर विशेष प्रशिक्षण-विद्यालयों में भी भेजे जाने की नितांत आवश्यकता है|
• स्कूलों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाया जाए:- समावेशी शिक्षा हेतु यह प्रयास भी किया जाना चाहिए कि स्कूलों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाया जाए ताकि वहाँ छात्र की सामुदायिक जीवन की भावना को बल मिले, जिससे वे सफल एवं योग्यतम सामजिक जीवन यापन कर सकें| इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु समय-समय पर विद्यालयों में वाद-विवाद, खेल-कूद तथा देशाटन जैसे मनोरंजक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए|
• विद्यालयी शिक्षा में नई तकनीक का प्रयोग:- समावेशी शिक्षा के सफल क्रियान्वयन व प्रचार-प्रसार हेतु शिक्षा में नई तकनीक को भी तरजीह देने की अति आवश्यकता है| इनमें शिक्षाप्रद फ़िल्में, टी.वी कार्यक्रम, व्याख्यान, वी.सी.आर और कंप्यूटर जैसे उपकरणों को प्राथमिकता के आधार पर विद्यालय में उपलब्धता और प्रयोग में लाए जाने के क्रांति की आवश्यकता है| इससे भी विद्यालय में समावेशी शिक्षा को लागू करने में मदद मिलेगी|
• मार्गदर्शन एवं समुपदेशन की व्यवस्था:- भारतीय विद्यालयों में समावेशी शिक्षा के पूर्णतया लागू न होने के कई कारणों में से एक कारण विद्यालय में मार्गदर्शन एवं समुपदेशन की व्यवस्था का न होना भी है| इसके अभाव में विद्यालय में समावेशी वातावरण का निर्माण नहीं हो पाता है| अतः समावेशी शिक्षा देने के तरीकों में यह भी होना चाहिए कि विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों और उनके अभिभावकों हेतु आदि से अंत तक सुप्रशिक्षित, योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों द्वारा मार्गदर्शन एवं परामर्श प्रदान करने की व्यवस्था होनी चाहिए|
अस्तु, समावेशी शिक्षा का उद्देश्य सभी छात्रों के ज्ञान, कौशल, में आत्मनिर्भर बनाते हुए उन्हें भारतीय समुदायों और कार्यस्थलों में योगदान करने के लिए तैयार करना होना चाहिए, किन्तु भारतीय स्कूलों की विविध पृष्ठभूमि और क्षमताओं के साथ छात्रों को शिक्षा की मुख्यधारा में जोड़ने के रूप में समावेशी शिक्षा केंद्रीय उद्देश्य अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है, लेकिन हम इन चुनौतियों का मुकाबला शिक्षकों के सहयोग, माता पिता के प्रयास, और समुदाय से मिलकर करने हेतु प्रयत्नशील है|
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